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Siddhantkaumudi Punralochan भट्टोजिदीक्षितकृत सिद्धान्तक&#

Siddhantkaumudi Punralochan भट्टोजिदीक्षितकृत सिद्धान्तक&#

Sukhesvara Jha
506 595 (15% off)
ISBN 13
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9789385538063
Year
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2015
पाणिनि ने समग्र संस्कृत को लक्ष्य बनाकर ?अष्टाध्यायी? के सुत्रों की रचना की। संस्कृत-सामान्य-लौकिक वैदिक-को ध्यान में रखते हुए नियम बनाने के सन्दर्भ में जहाँ कोई वैदिक विलक्षणता सामने आई वहाँ ?छन्दसि? कह दिया, जहाँ कोई ऐसी विलक्षणता नजर आई जो केवल लौकिक व्यवहार में ही चलने वाली थी, तो वहाँ ?भाषायाम्? पद सूत्र में जोड़ दिया, अन्यथा झ् नियम लोक-वेदोभय साधारण ही बनाए। महाभाष्यकार पताञ्जलि ने ?अथ शब्दानुशासनम्? कहकर प्रश्न उठाया ?केषाम् शब्दानाम्? और उसका जबाव दिया ?लौकिकानाम्, वैदिकानाञ्च?। ऋग्वेद की प्रथम ऋचा देखिए अग्निमीळे पुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्वितम्। होतारं रत्नधातमम्।। यह चूँकि वेद का मन्त्र है, अतः अग्निम्, ईडे, पुरोहितम्....... सभी पद वैदिक हैं। परन्तु एक भी पद वैसा नहीं है जो लोेकभाषा में चलने वाला नहीं हो! इसलिए वैदिक लौकिक के बीच में सीमा रेखा खींचना परम अव्यावहारिक ही नहीं, असम्भव है। लट्, लिट्, आदि दम लकार तिङन्त प्रकरणों में हैं, केवल एक ?लेट्? लकार वैदिकी प्रक्रिया में है। इसका यह अर्थ तो नहीं है कि वेद में कवेल लेट् का ही प्रयोग है? इसका इतना ही अर्थ है कि सभी लकार लोकवेदोभयासाधारण हैं, लेट् केवल वेद में ही चलता है। इसी तरह संज्ञा, सन्धि सुबन्त, तिङन्त, कृदन्त के सभी शब्द लोक-वेदोभयसाधारण हैं, मगर भट्टोजिने उत्तर कृदन्त के बाद एक कारिका लिखी ?इत्थं लौकिकशब्दानां दिङ्मात्रमिह दर्शितम्? इससे भ्रम पैदा हुआ कि पाणिनिये लौकिक पर तो बहुत लिखा, मगर वैदिक पर तो इतना ही लिखा कि छोटी सी ?वैदिकी प्रक्रिया? में सब समागया। वर्त्तमान ग्रन्थ में विवेचना की गई है कि भट्टोजि के विभाजन का प्रयास चल नहीं सका। अनेक स्थलों में वैदिकी से बाहर छन्दोविचार तथा स्वर प्रक्रिया से बाहर ?स्वरे भेदः? इस उक्ति से सिद्धान्तकौमुदी भरी हुई है।